Sunday, December 11, 2011

शादी के साथी.................

कल घर पर पहुँचते ही मम्मी का फरमान जारी हुआ की सब जल्दी से तैयार हो जाएँ एक घंटे में पार्टी के लिए निकलना है| मैंने पूछा किसी की शादी है क्या, तोह पता चला की किसी दूर के रिश्तेदार के यहाँ लड़के की शादी है| अब दूर की शादी थी तोह मैंने पूछ ही लिया, की कोई जान पहचान का भी है वहां या मैं अकेला ही वहां अब्दुल्ला दीवाना बन कर घूमूँगा| "अरे नहीं, वहां तुझे राजू भैया भी मिलेंगे, और उन के बच्चे भी होंगे वहां पर, तू उन के संग घूम लियो", मम्मी ने कहा| ये बात सुन कर कुछ जान में जान आई, चलो तैयार हो कर गाडी में सबको लेकर वहां पहुंचते हुए रस्ते भर सोचता रहा की उन बच्चो के बीच में मैं क्या करूँगा, पता नहीं वोह मेरे संग घूमना पसंद करेंगे की नहीं| वहां पहुँच कर मन में एक ख्याल आया की बच्चे ही तोह है, तोह उन्हें क्या पसंद होगा बचपना, तोह आज की रात उसी बचपने के नाम| बस फिर क्या था, सारे आंटी अंकल को मिलने और पाऊँ छूने के कार्यक्रम के बीच, मेरी आँखे तोह सिर्फ उन बच्चों को तलाशने में लगी हुई थी| तभी मुझे मिलवाया गया मेरे अगले दो या लगबघ तीन घंटे के साथियों से, जिसमे से दो नौंवी और दसवी में पढ़ती थी और उनकी एक छोटी सी बहिन तीसरी कक्षा में थी| तोह ये थे मेरे आज की शाम के साथी, मैं उन्हें पहले भी मिल चूका था क्यूंकि वोह मेरी दूर के रिश्ते में बहने ही थी तोह खास परिचय करने की जरुरत नहीं पड़ी बस एक दुसरे के हाल चाल पूछने के बाद मैंने ही बोला की आप लोगों का क्या प्लान है|

छोटी वाली को तोह गुब्बारे से खेलना था, तोह हमने पहले उसे  गुब्बारा दिलवाया और वोह तोह उसी में मस्त हो गयी और रह गए हम तीन| चलो मैं तोह निश्चय कर के आया था, अपना दिमाग नहीं लगाऊंगा और जो वोह दोनों कहेंगी वही होगा चाहे लोग जो मर्जी सोचे| पहले बड़ी वाली "ईशा" बोली की चलो चौमिन खाते है, मैंने कहा चलो तभी "निशा"  ने कहा नहीं चौमीन तोह हम घर पर भी खा सकते हैं, पहले हम पिज्जा खाएंगे और अचानक से वही हुआ जिसका मुझे डर था| आपने अंदाजा तोह लगा ही लिया होगा, दोनों ने पलट कर मेरी तरफ देखा और मैं ऐसा जताने की कोशिश करने लगा की जैसे मैंने कुछ सुना ही नहीं, तभी दोनों की आवाज़े एक संग मेरे कान में गूंजने लगी, "की आप  बताओ क्या खाएं"| दोनों की आँखे मेरी तरफ टकटकी लगाएं मेरे जवाब का इंतज़ार कर रही थी, और में एक एक कर दोनों के चेहरे की तरफ देखने की कोशिश में था की कहूं तोह कहूं क्या| मन तोह कर रहा था की पिज्जा बोल दूं लेकिन फिर मेरे मुहं से बहुत ही धीमी सी आवाज़ निकली "तुम लोग जो भी बोलो, मुझे तोह सब अच्छा लगता है"| बहुत सी मंत्रणा के बाद ये फैसला हुआ की पहले चौमिन चखने के बाद पिज्जा पर धावा बोला जाएगा, चलो जी एक छोटी सी  प्लेट और उस पर हम तीनो अपने अपने कांटे लेकर उसपर टूट पड़े और फिर भी हम उसे पूरा ख़तम नहीं कर पाए, क्या करे स्वाद ही इतना शानदार था की आपका चौमिन से विश्वास उठ जाए| फिर हमारी तिगडी निकल पड़ी हॉल के बीचो बीच लगे पिज्जा स्टाल की तरफ, हम तीनो येही दुआ मन रहे थे की पिज्जा कम से कम पिज्जा जैसा निकल जाए, बस हम सोचेंगे की हमारा आना और खाना दोनों सफल हो गया| आखिरकार भगवन ने हमारी दुआ कबूल ली, और पिज्जा का काम तमाम करने के बाद हमने फैसला किया पहले एक इंस्पेक्शन सुर्वे हो जाए, ताकि सारी चीज़ों में से अपनी मन पसंद की चीज़ें चुनी जा सके| तोह घुमते घुमते हमारी नज़र पड़ी पाओ भाजी जिसका मेरे और निशा के विरोध के बावजूद, ईशा की तिर्व इच्छाओं का सम्मान करते हुए ले ली गयी| पहले टुकड़े में ही उसके लाजवाब स्वाद का अंदाजा हो गया, और फिर हम तीनों उस बेचारी छोटी सी प्लेट पर टूट पड़े, अब फोर्मलिटी का समय नहीं था, जिसके हाथ जितना बड़ा टुकड़ा लगा उसकी किस्मत| तोह वहीँ पर खाते खाते निशा ने एक और पो भाजी का आर्डर दे दिया गया, और फिर एक और करते हुए तीन चार प्लेट साफ़ हो गयी| फिर हम दोनों ने ईशा को धन्यवाद् देते हुए उससे अगले स्टाल का नाम बताने का कार्यभार सौप दिया|

इसी बीच छोटी बच्ची रोती हुई वहां आ पहुंची, उसका गुब्बर्रा टेंट की छत पर चढ़ गया था हमने लाख समझाया की बेटा वोह वापिस नहीं आ सकता आप दूसरा ले लो लेकिन वोह मानी नहीं| जैसे ही हम समझाने की कोशिश करते, उसका वोलयूम और और तेज़ हो जाता, तोह उसको शांत करने के लिए हमने सोचा की एक बार कोशिश कर के देख लेते हैं, तोह उठाए हमने स्टाल के पीछे पढ़े हुए बांस के डंडे और ऊपर कपडे पर मारना शुरू कर दिया, दो तीन बार मारने पर वोह गुब्ब्बर्रा यो निकल आया, और वोह बच्ची खुश भी हो गयी| लेकिन हमने सोचा जिस तरह लोग हमें घूर रहे थे की यहाँ बहुत तमाशा कर लिया, अब किसी और कोने में चलने में ही बेहतरी है| पेट तोह लगभग भर ही चूका था, तो अब हमें वहां आइसक्रीम का स्टाल दिख गया| ईशा को सर्दी थी तोह उसने मना कर दिया, लेकिन हम दोनों वहां पहुंचे तोह देखा की चार तरीके की आइसक्रीम, बस सोच ही रहे थे की कौन सी ले तभी मैंने कहा भैया सबको मिक्स करके दे दो| वोह तोह ऐसा खुश हुआ की उसे भी मिल गया कुछ अलग तरीके का बनाने का, और निशा ने बुट्टर स्कोत्च आर्डर कर दी| हम दोनों अपनी अपनी आइसक्रीम खा ही रहे थे, की ईशा से रहा नहीं गया, वोह भी आ गयी चम्मच ले कर हमारी आइसक्रीम टेस्ट करने और दोनों से एक एक चम्मच लेने के बाद तोह वोह मेरी भी आधि आइसक्रीम खा गयी| बस अब क्या था हमने मिक्स के तीन आर्डर और दे दिए ओर हसीं ठहाको के बीच वोह भी कब ख़तम हो गयीं पता ही नहीं चला | बस फिर क्या था, हमारी देखा देखि तोह वहां पर मिक्स लेने वालों की कतार लग गयी| लेकिन अब हम लोग कहाँ रुकने वाले थे, निशा बोली की इसे कोल्द्द्रिंक में दाल कर पीते हैं और मज़ा आयेगा, मैंने कहा क्यूँ नहीं चलो और कोल्द्द्रिक के आधे आधे ग्लास ले कर पहुचगए आइसक्रीम के स्टाल पर | और फिर दो तीन बार हमने कोल्द्द्रिंक और आइसक्रीम के अलग अलग तरीके से मिश्रण कर डाले, जिसमे हम तीनो ही बहुत मज़े उठाये|

बस इसी सब के बीच हमारे माता पिता वहां आ पहुंचे, और हमारे हांथों में वोह स्पेशल दिशेस का नाम पूछने लगे की हमने तोह कहीं नहीं देखि| तोह जैसे ही हमने इसका राज़ बताया और जो  ईशा को डांट पड़ी है उसका तोह कोई जवाब ही नहीं, यहाँ उसको डांट पढ़ रही थी और हमारी हंसी ही नहीं रुक रही थी| तब मैंने और निशा ने बोल ही दिया " आंटी हम तोह मना कर रहे थे लेकिन ये हमारी सुनती ही कहाँ है, बहुत बिगड़ गयी है ये", इसके पीछे असली मकसद तोह उसकी मम्मी का ध्यान भटकना था, और  हुआ भी येही वोह हंस पढ़ी और ईशा की जान बची| बस अब हम तीनों ने सोचा दूल्हा दुल्हन से भी मिल ही आते हैं, तोह पहुँच गए स्टेज पर हंगामा करने| वहां उन दोनों को थोडा छेड़ने और फोटो खिचवाने के बाद हम चल पढ़े माता पिता के पास, जो की जाने के लिए बेक़रार हो रहे थे, फिर हम तीनों ने एक दुसरे से नंबर एक्सचेंज करने के साथ एक दुसरे से टच  में रहने का वादा भी किया| वापिस आते हुए मैं सोच कर मुस्कुराता रहा की इस शादी में शायद लोग जैसे आये होंगे और वैसे  ही चले गए होंगे, लेकिन मैं ही शायद खुशनसीब इंसान था जो की पहले सोच रहा था की अकेला शादी में क्या करूँगा, और वहां पर सबसे ज्यादा मस्ती कर के लौट रहा था  ........................... 

Monday, October 31, 2011

दिवाली की शुभकामनाए.............

 नमस्कार दोस्तों, 
आप सब से इतनो दिनों से दूर रहने के लिए क्षमा चाहता हूँ, बस तोह इस दिवाली कुछ ऐसा हुआ की मैं अपने अप को रोक नहीं सका और बस आ गया आप लोगों के समक्ष अपने विचार प्रकट करने..

२६-१०-२०११ 
दिवाली की सुबह: आज मन ने कहा की इस दिवाली को किसी नए तरीके से मनाया जाए, जो आज तक नहीं किया वोह किया जाए| बहुत से विचारों ने मन की लोकतान्त्रिक संसद में अपनी अपनी बात रखना शुरू की, उनमे से एक सुझाव था की किसी को जाकर दान किया जाए, और एक सुझाव ऐसा भी था की परिवार के साथ कही देल्ही के बाहर लॉन्ग दीराइव पर जाया जाए| तोह संसद में एक लम्बी अहिंसक और शांतिपूर्ण बहस और जिद्दोजहद के बाद इस बात आम सहमति के बाद पर फैसला हुआ की इस बार मैं सब से बड़े जन संपर्क आन्दोलन के तहद अपने फ़ोन की दिरेक्तोरी से एक एक करके सबको दिवाली की शुभकामनाए दूंगा, चाहे मेरी उससे पिछले एक साल में कभी बात न हुई हो, कहना बहुत आसान था लेकिन विश्वास कीजिये करना उतना ही मुश्किल| लेकिन मेरा मानना है की  एक बार अप फैसला ले लेते है तोह उसके बाद कभी पीछे नहीं हटना चाहिए, तोह संकल्प के साथ कुछ नियमों पर भी सहमति तय हुई जो की इस प्रकार थे:
१. सबको एक एक कर के कॉल मिलायी जाएगी
२. अगर किसी का फ़ोन बिजी जाता है या स्विच ऑफ होता है तोह उसे दोबारा कॉल नहीं की जाएगी
३.  और किसी से कॉल नहीं उठाने के संधर्भ में सिर्फ एक बार दोबारा अपने नंबर से कॉल की जाएगी 
४. अगर फ़ोन कोई और उठता है तोह उसको एक बार फिर पुनः कॉल की जाएगी
अब फ़ोन उठाते ही संसद के बहुत महत्वपूर्ण मंत्रालय की अप्पत्ति प्रस्तुत हुई, सोचिये किसकी .....
जी सही सोचा आपने वित्त मंत्रालय की जिसके हिसाब से इस योजना को सफलता पूर्वक पूरा करने के लिए पर्याप्त राशी उपलब्ध नहीं है| अब क्या करे? तभी याद आया की घर का सार्वजानिक मोबाइल किस दिन काम आयेगा| तोह शुरू हुआ कॉल मिलाने का सिलसिला, अब इसमें सबसे मज़ेदार बात ये थी की अब मैं एक अनजान नंबर से सबको फ़ोन करने वाला था| बस क्या कहने अब इससे ये पता लगा की मेरे दोस्त दूसरों से कितनी फोर्मल्ली और दोस्तों से कितनी कैज़ुअली बातें करते हैं| 
तोह पहले फ़ोन मिलाते ही मैंने दिवाली की शुभकामनाए दी और उसके बाद रेस्पोंसे में मुझे अधिकतर बहुत ही धीमे और मधुर स्वर में शुभ्कुम्नाए वापिस मिली, लेकिन फिर मैंने उन्को  पहचान के लिए कुछ हिंट दिया, किसी ने पहचाना, और किसी ने नहीं और जैसे ही नाम की पहचान करवाई गयी आवाज़ में एक कांफिडेंस आ गया और उसकी कुछ झलकिया निचे दी गयीं है......
१. 
दोस्त: हेल्लो
मैं: हैप्पी दिवाली
दोस्त:(धीमे स्वर में) हैप्पी दिवाली आपको भी, वैसे आप कौन?
मैं: हम वोह हैं जिनके जासूस कोने कोने में फैले हुए हैं.
दोस्त:(धीमे स्वर में) अच्छा जी.
मैं: अभी भी नहीं पहचाना.
दोस्त: नहीं.

मैं: आपका एक पुराना दोस्त था अमिटी में.
दोस्त:(हसीं के साथ) अच्छा अमर, और क्या हाल हैं........

२.   
मैं: हेल्लो, हैप्पी दिवाली.........
दोस्त:(बहुत धीमे स्वर में) हांजी, आप कौन?
मैं: पहले हैप्पी दिवाली का जवाब तोह दीजिये.
दोस्त:(धीमे स्वर में) ज़रूर, हैप्पी दिवाली आपको भी, लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं.
मैं: हम वोह हैं जो आपसे बहुत झगडा करते थे.
दोस्त: अरे अमर तुम, नंबर चैंज कर लिया क्या .........

३. 

दोस्त: हांजी कौन बोल रहा है
मैं: हैप्पी दिवाली.........
दोस्त:(धीमे से बहुत ही मीठे स्वर में) हेप्पी दिवाली आपको भी.
मैं: पहचाना की नहीं
दोस्त:(धीमे स्वर में) नहीं, कौन है आप.
मैं: हम वोह हैं जो मेट्रो में आपको परेशान करते हैं .
दोस्त: अरे अमर सर, आप .........

४. 

मैं: दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए.........
दोस्त:(बहुत ही इज्जत भरे स्वर में) हेप्पी दिवाली आपको भी.
मैं: नहीं हमने हिंदी में बोला है, अप भी हिंदी में जवाब देने की कृपा करें
दोस्त:(सँभलते हुए) जी आपको भी दिवाली की बहुत बहुत (हँसते हुए) शुभकामनाए......
मैं: धन्यवाद्, क्या आपने हमें पहचाना
दोस्त: नहीं, लेकिन कुछ कुछ यद् आ रहा है.
मैं: क्या आपको पता है की आपका खाना लंच से पहले कौन खा जाता था.
दोस्त: अबे अमर, तू इतने दिनों बाद, और ये क्या था बे..................

५. 
आंटी: हेल्लो ..........
मैं: हैप्पी दिवाली आंटी,
आंटी: हैप्पी दिवाली, आप कौन
मैं: आंटी हम दो छोटे बच्चे जो आपके कुत्ते को छेड़ते रहते थे, याद आया
आंटी: नहीं तोह, ठीक से याद नहीं आ रहा है
मैं: आंटी हम आपके सामने वाले कुअर्टर में रहते थे और अपने एक बार हमें घर में बंद कर दिया था, मम्मी को दिखाने के लिए.
आंटी: अच्छा अरोरा का लड़का.....................

६.

मैं: हेल्लो,
दोस्त: कौन बोल रहा है
मैं: हम आपके दुश्मन बोल रहे हैं, हैप्पी दिवाली
दोस्त: हम दुश्मनों को विश नहीं करते
मैं: लेकिन हम तोह करते हैं, फिर से हैप्पी दिवाली
दोस्त: हैप्पी दिवाली, लेकिन याद नहीं आ रहा
मैं: हम आपके सबसे बड़े वाले दुश्मन बोल रहे हैं, यानि बहुत ही बड़े वाले दुश्मन
दोस्त:  अबे तेरी तोह, इतने सालों से कहाँ था बे..............

७.
दोस्त: हांजी बोलिए
मैं: अरे वाह इतनी इज्जत,  कभी दोस्तों से भी हांजी करके बात कर लिया कर
दोस्त: जी कौन मैंने आपको पहचाना नहीं
मैं: बेटा, रोज काम्प्लेक्स में मिलने के बाद भी नहीं पहचाना.
दोस्त: अबे अमर तू
मैं: बस फिर आ गया तू तड़क पर, चल हैप्पी दिवाली........

९.
दोस्त: हेल्लो जी
मैं: हेल्लो, कौन बोल रहा है
दोस्त:(उत्तेजित होते हुए ) जी, अपने फ़ोन मिलाया है , आप बताइए
मैं: हैप्पी दिवाली
दोस्त: हैप्पी दिवाली, लेकिन अप बोल कौन रहे हैं
मैं:येही तोह हम पूछ रहे हैं की आप कौन बोल रहे हैं,
दोस्त: अब बस बहुत मज़ाक हो गया, आप बताइए.
मैं: चलिए हम आपके ग्रुप के सबसे बड़े घुमक्कड़ बोल रहे हैं
दोस्त: अबे अमर, मैं तोह डर ही गया था और कहाँ घूम रहा है आज...........


Thursday, July 28, 2011

द गल्ली क्रिकेट भाग १ ............

आज हमारे मोहल्ले में बच्चो की छुट्टी थी, और उस पर घने बादलों से ढका आसमान। एक सुहाना मौसम और उस पर छुट्टी, यह एक सुनहरा मौका था बाहर निकल कर कुछ खेलने कूदने का। वैसे तो आज कल माता पिता अपने बच्चों को कम ही बाहर निकलने देते हैं लेकिन इस बार उनके पास धूप में बीमार होने का बहाना भी नहीं था। इसलिए चार पांच दोस्त इकठ्ठा हुए और चल पड़े टीम के लिए खिलाडियों की तलाश में, सबने मिल कर बिलकुल एक मैनेजमेंट ग्रुप की तरह आपस में काम का बटवारा कर दिया। एक को काम मिला बाल का इंतज़ाम करने का, और दो को खिलाडियों की भर्ती करने का यानि रेक्रूइत्मेन्त टीम और एक को खेलने के सामान का प्रबंध यानि प्रोकुरेमेंट करने का। और जो अंत में बच गया वोह बिलकुल एक मेनेजर की तरह कुछ करने की जगह सबको सलाह देने और गली में खेलने की सबसे सही जगह तलाशने में लग गया। ऐसा मत समझिये की उसका कोई आसान काम था, एक पार्क में और एक गली में खेलने में बहुत फर्क होता है। गली में आप जहाँ मर्जी नहीं खेल सकते, जैसे ही मेनेजर साहब ने किसी के घर के आगे रखी कुछ बेकार रखी ईटों को हाथ लगाया तभी ऊपर बालकोनी में कड़ी आंटी चिल्ला कर बोलीं, "बेटा यहाँ मत खेलना मैंने अभी मुन्ने को सुलाया हैं" "ठीक है आंटी अप चिंता मत करो हम बिलकुल बिना आवाज़ के खेलेंगे", मेनेजर साहब बोले, तभी रेक्रुइत्मेन्त टीम के मेम्बर हल्ला मचाते हुए आये की सब को बोल दिया है, बस अभी तैयार हो कर रहे हैं। बस यह सुनना था आंटी फिर भड़क गयीं और बोली "बस इसिलए मैं कह रही थी, जाओ कहीं और जा कर खेलो" बस मेनेजर साहब ने भी सुना डाला रेक्रुइत्मेन्त टीम को, और फिर प्यार से आंटी से बोले " आंटी बस लास्ट बार अब बिलकुल शोर नहीं मचेगा, मैं वादा करता हूँ" आंटी कहाँ मानने वालीं थी, तोह अंततः खेलने का स्थान चार पांच घर पीछे की तरफ कर दिया गया वोह भी इसलिए की जिस घर के सामने यह नया स्थान पक्का हुआ था उनके घर का एक बच्चा टीम में अभी अभी भर्ती हुआ था। तोह दो ईटों की एक विक्केट बन गयी और अंदाजे से दूसरी तरफ एक ईट का विक्केट तैयार किया गया, कुछ दर्शक भी इक्कठा हो गए जो की अपनी अपनी बालकोनी वाली आरक्षित सीटों से खेल का लुत्फ़ उठाएँगे। इतनी देर में बाकी के खेल खेलने वाले बच्चे भी गए, तभी दूर से प्रोकुरेमेंट वाले बच्चे को आते देख दो बच्चे बल्ला लेने उसकी तरफ दौड़े, तभी मेनेजर साहब चिल्लाये "अबे क्यों भाग रहे हो, पहले राकेश को बाल तोह लाने दो" इतना सुनना था की एक आवाज़ आई, की जबतक वोह आयेगा तब तक टीम तो बाट लो। बस इसी के साथ टीम बाटने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया की शुरुआत हुई, मेनेजर साहब और रेक्रुइत्मेन्त टीम के हेड को टीमों के कप्तान के रूप में चुना गया और उन्होंने एक एक कर अपने मुताबिक खिलाडियों का चयन कर लिया। उसके बाद मेनेजर साहब बोले "अरे यार यह कोई बात हुई, तुम्हारे पास तोह एक बॉलर ज्यादा है", बस इतना सुनना था की दूसरी टीम वाले भड़क कर बोले "अरे बिलकुल सही टीम बाटी है, तू हर वक़्त रोया मत कर" लेकिन फिर भी समझाने भुजाने के बाद एक खिलाडी की अदला बदली हो गयी, और इसी बीच नयी बाल भी गयी जिसका पैसा बराबर बाँट कर सबसे वसूला गया। जिसके पास नहीं थे उसने अपने किसी दोस्त से उधार मांग कर बाद में देने का वादा कर दिया, और इसी के साथ गली क्रिकेट की अधिकारिक शुरुआत हुई..........................

Saturday, June 11, 2011

डॉक्टरों की दूकान.................

"रवि जल्दी नीचे  आओ, शांति को चोट लग गयी है" माँ की नीचे वाली मंजिल से चिल्लाने की आवाज़ आते ही रवि ने आव देखा न ताव, नंगे पाँव ही निचे भागता हुआ पहुंचा | शुक्र है की थोडा संभल कर आया नहीं तोह फिर माँ को रवि के लिए किसी और को आवाज़ लगानी पड़ती | नीचे बेचारी ६ साल की छोटी सी शान्ति रोए जा रही थी, उसके दाएं हाथ की दूसरी ऊँगली में से खून बह रहा था, और उसमे से चोट ठीक तरह से दिखाई नहीं दे रही थी | माँ ने उसके हाथ को अपने हाथ में पकड़ रखा था और शांति से ज्यादा तोह माँ डरी हुई लग रही थी, और उनका डरना वाजिब भी था, क्योंकि वोह तोह माँ है ना | तभी माँ ने रोते हुए सुर में बताया की "इसकी ऊँगली गेट बंद करते समय बीच में आ गयी है, जल्दी कुछ कर", इसी के साथ माँ उसकी ऊँगली में फूँक मारने में लग गयी | वोह बेचारा भी क्या कर लेता, उसने पापा को आवाज़ लगा दी, बस इतने में तोह पूरा घर निचे हॉल में इक्कठा हो गया | सब का आते ही वही पुराना घिसा पिटा सवाल "हाय राम, चोट कैसे लग गयी", और फिर वही पुराने जवाब | इन सवाल जवाबों के बीच शांति तोह बेचारी कहीं खो गयी रह गया तोह सिर्फ सवाल और जवाब का एक सिलसिला | तभी चाचीजी बोली "अरे यह सब छोडो पहले इसकी कोई ऊँगली दबा कर खून तोह रोको", इतना सुनना था की चाचाजी भी जोश में आ गए और बोले "अरे नहीं, इसकी ऊँगली नल के पानी के नीचे रखो, इससे खून भी बंद हो जाएगा और घाव भी दिख जाएगा" | तभी ताई जी आवाज़ आयी "अरे यह छोटी सी चोट के लिए क्या हंगामा मचा रखा है, कोई बाहर से मिटटी ला के लगा दो सेकंड में खून रुक जाएगा" | तभी दादीजी चिल्ला कर बोली, लड़की की ऊँगली ख़राब करनी है क्या " उसकी ऊँगली पानी  और dettol  से साफ़ कर के  पट्टी बांद दो" | इसी सब के बीच भुआ शान्ति की ऊँगली साफ़ कर उसे चुप कराके आंसूं पोछने में लग गयी | तभी बच्चा पार्टी दौड़ पड़ी दवाइयों के डब्बे को ढूँढने जो की शायद द्रविंग रूम में टीवी की नीचे वाली खाने में पड़ा था |  फूफा जी भी आये हुए थे, तोह वोह बोले की मेरी जानकारी का एम्स में डॉक्टर है मैं उससे पूछता हूँ, और फिर वोह फ़ोन करके एक्सपर्ट अड़वाइस लेने में व्यस्त हो गए | हमें समझ में नहीं आ रहा था ऐसी कौनसी बड़ी चोट लग गयी जिसके लिए इतने बड़े अस्पताल में फ़ोन करना पड़ रहा है | लेकिन घर के दामाद के सामने कोई क्या बोलता, सब भुआ से पूछने लग गए, बहुत बड़े डॉक्टर साहब होंगे, वोह तोह दो सेकंड में इलाज बता देंगे | दादी बोली भी "इतनी बड़ी चोट नहीं है क्यों छोटी बात को बढा कर बच्ची को हौला बैठा रहे हो" | इससे पहले की फूफा जी अपनी कॉल ख़तम करते, तभी बाहर से बड़े भैया बगल में रह रहे डॉक्टर साहब के संग रास्ते से सबको हटाते हुए बोले  "आप सब अपनी दोक्टरी की दुकाने बंद कर दे, डॉक्टर साहब आ गए हैं", और डॉक्टर साहब चोट देख कर बोले " की घबराने की कोई ज़रुरत नहीं है, मामूली सी चोट है में द्रेस्सिंग कर देता हूँ, कल तक शांति ठीक हो जाएगी". शांति पट्टी बंधते हुए बिलकुल भी नहीं रो रही थी, वोह शायद खुद के दर्द से ज्यादा उन बड़े और समझदार लोगों के दस मिनट पहले किये गए कार्यक्रम के बारे में सोचने में व्यस्त थी......

Monday, May 23, 2011

मेरे घर के सामने....

 आज दादाजी सुबह की मोर्निंग वाक से जल्दी घर आ गए और बहुत ख़ुशी ख़ुशी सबको द्रविंग रूम में बुलाने को कहा | सब जल्दी जल्दी अपना काम बीच में छोड़ रूम में पहुंचे तोह दादाजी बोले की आज वाक पर उनको पड़ोस वाले मल्होत्रा जी मिले जिन्होंने बताया की हमारे घर के बिलकुल सामने वाली रोड मेट्रो के रूट में आ गयी है, जिसका तात्पर्य था की अब मेट्रो हमारे घर के सामने से गुजरेगी और दादाजी ने ये भी बताया की एक दो हफ्ते में काम भी शुरू हो जायेगा | सब बहुत खुश हुए, पापा और हम इसलिए की हमारा घर भी अब दिल्ली के हर कोने से कनेक्ट हो जायेगा | दादा दादी इसलिए की भुआ के घर आने जाने में आसानी हो जाएगी, तभी मम्मी बोली की अरे तोह फिर तोह बहुत धुल मिटटी उड़ेगी, इसलिए अगले हफ्ते वेक्यूम क्लीनर का इन्तेजाम कर देना | पहले तोह पापा बोले की कोई धूल नहीं उड़ेगी लेकिन फिर मम्मी की नज़रों को देख कर बोले की हाँ भागवान ले आऊंगा आपका वक्युम क्लीनर | दो हफ्ते के अन्दर ही सड़क की खुदाई का काम शुरू हो गया और इसी के साथ हमारे आने जाने का रोज का रास्ता बंद हो गया | अब हम स्कूल १ किलो मीटर लम्बा चक्कर काट कर जाने लगे और पापा का चक्कर ५ किलोमीटर लम्बा हो गया | बसों का रूट भी बदल गया तोह अब मम्मी ने घर से रिक्शा करना शुरू कर दिया | अब भुआ भी कम ही घर आने लगी कहते थी आने जाने में बहुत टाइम लग जाता है | मम्मी भी शाम को वक्युम क्लीनर चलाने में बीजी रहने लगी, और कभी कभी दादाजी की नींद रात को खट खट से उठने लगी | लेकिन मजाल है किसी ने जरा सी भी शिकायत करी हो | दादाजी अब जब अपने खतों में "निअर मेट्रो स्टेशन" लिखते थे तोह बहुत ही गर्व महसूस करते थे | जब भी रिश्तेदार उन धूल भरे सोफों पर बैठते थे तोह हमेशा यही कहा करते थे की अब तोह आप भी हाई सौसाईंटी वाले होने वाले हो जी | चलिए एक दिन वोह भी आया जब हम ओफ्फिसिअल मेट्रो के सामने वाले हो गए यानि इनौग्रशन का दिन, सारी बच्चा पार्टी उस दिन छत पर उस पहली मेट्रो के को देखने पहुँच गयी, वैसे तोह त्र्यल रन के दौरान वोह कई बार इसे देख चुके थे लेकिन अबकी बात ही कुछ और थी | अब दादा दादी का आना जाना आसान हो गया, भुआ के घर दादी अकेले भी चले जाया करती थी | पापा भी अब मेट्रो से ही ऑफिस जाने लगे, बोलते हैं सफ़र बहुत आसान हो गया है | हम भी अब दोस्तों से मिलने मेट्रो में ही जातें हैं और मम्मी भी मेट्रो में ही अपनी किट्टी पार्टी के लिए निकलती हैं | फिर एक दिन पापा के किसी दोस्त ने आकर बताया की प्रोपर्टी के दाम मेट्रो की वजह से दो गुने हो गए हैं, लेकिन दादाजी के अनुसार तोह इस माकन में उनके पिता का आशीर्वाद बस्ता है, तोह दो गुना हो या चार गुना हमें क्या फर्क पड़ता है | लेकिन मेट्रो सामने से क्या जाने लगी घर का मिजाज़ बदल गया है, पहले दादाजी बिना बनियान के छत पर चले जाया करते थे पर अब इतनी गर्मी में भी उन्हें कुरता या शर्ट चाहिए | अब छत वाले कमरे में भी हमने स्पेशल काले वाले शीशे लगवाए हैं, और घर की लेडिस को स्पेशल हिदायत मिली है की बिना पल्लू  किये छत पर न जाए | अब दादाजी की सुबह सुबह छत पर गुड गुड कर गला साफ़ करने की आवाज़े नहीं आती है, और बगल वाले घर पर लगे होर्डिंग्स से नए नए प्रोदुक्ट्स के बारे में पता लगता रहता है | बच्चे अब रात को छत पर सोने नहीं जाते, कहते है की कमरे में सोने ज्यादा अच्छा लगता है और न ही मम्मी और दादी बाल सुखाने छत पर जाती हैं | पहले जो एरिया बिलकुल शात्न्त और रिहायशी हुआ करता था अब वहां दुकाने ओफ्फिसस का खुलना शुरू हो गया है, अनजान लोगों की भीड़ कोलाहल मचाते हुए अब बालकोनी में खड़े लोगों को भी नहीं बक्ष्ती | सड़क ठीक होने के बाद बस स्टॉप फिर अपनी जगह पर आ गया है जो की पैदल का ही रास्ता है लेकिन स्टेशन तक पहुँचने के लिए रिक्शे वाले को दस रूपए देने ही पड़ते हैं | घर में छुटकी का कहना है की इतने रूपए में तोह वोह बस से स्कूल में आना जाना दोनों कर लेगी और जितना टाइम रिक्शा वाले से मोल भाव करेगी इतने टाइम में तोह वोह स्कूल ही पहुँच जाएगी........

Wednesday, April 6, 2011

हमको शर्म कुछ ज्यादा ही आती है!!!!

रोज की तरह आज शाम की मेट्रो से पकड़ी जो की नॉएडा की तरफ जानी थी तोह द्वारका स्टेशन पर उतर कर आनंद विहार की मेट्रो का वेट कर रहा था की पास में एक छोटी बच्ची पर नज़र पड़ी. उसकी उम्र शायद १०-११ साल की रही होगी तोह उसकी मासूमियत भरे चेहरे पे हलकी सी मुस्कान ने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित किया. उसके साथ उसके माता पिता के साथ उसका ७-८ साल छोटा भाई भी था. भाई तोह थोडा शांत स्वाभाव का था, वोह ही थोड़ी नटखट और चुलबुली सी लग रही थी. अपनी ही धुन में मस्त कभी इस उधर दौड़ लगाती कभी उस और, कभी भाई को छेड़ कर बोर्ड के पीछे छुप जाती. कभी पापा से पूछती की "हमें कौन से स्टेशन तक जाना है" "कितना टाइम लगेगा", तभी पता नहीं माता जी को क्या सूझा उसका हाथ खीच कर बोली "चल चुप चाप बैठ जा यहाँ पर". बस इतना कहना था की मेट्रो आ गयी, और हम सब मेट्रो में बैठ गए, मैं पता नहीं क्या सोचता हुआ जान बूझ कर उन बच्चों की सीट के आस पास वाली सीट पर बैठ गया. मेट्रो ने दो स्टेशन ही आगे गयी थी की उसको फिर कुछ मस्ती सूझी की अपनी सीट से उठी और मेट्रो के बीच में लगे खम्बों को पकड़ कर गोल गोल चक्कर लगाने लगी, एक दो मिनट के बाद उसके मन आया तोह एक खम्बे से दुसरे से तीसरे के बीच इधर उधर घुमने लगी. भाई को बुलाने की कोशिश करी तोह मम्मी ने ऐसी नज़रों से देखा की फिर उसकी कुछ और कहने की हिम्मत नहीं हुई. उसके पापा की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया क्यूंकि मैं तोह उसके नटखट बचपन मैं खो गया था. गोल गोल घूम कर बोर हो गयी तोह उसका ध्यान ऊपर लटके हुए पकडे जाने वाले छल्लों पर गया तोह समझो उसकी बरसों पुरानी तम्मन्ना पूरी हो गयी हो, वोह तोह लगी उछल उछल कर उन्हें पकड़ने की कोशिश में, लेकिन वोह थोड़ी सी रह जाती फिर उछलती फिर जरा सा रह जाती, मैं उम्मीद में लगा हुआ की अब पकडे अब पकडे अब पकडे, लेकिन उसका कद उसको ये इजाजत नहीं दे रहा था. मन तोह किया की उठ कर उसकी मदद कर दूं और आज उसकी लटकने की इच्छा पूरी कर दूं लेकिन जैसा मैंने ऊपर लिखा है की हम लोगों को शर्म कुछ ज्यादा ही आती है. डर भी लग रहा था की कहीं उसके माता पिता ने कुछ बोल दिया तोह, और ये भी सोच रहा था की वोह ही उठ कर उसकी ये इच्छा पूर्ती कर देंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं शायद उनको मुझसे ज्यादा शर्म आ रही थी, और इन सब के बीच उसकी कोशिश जारी थी, तभी दूर बैठी एक आंटी ने उस बच्ची के अरमानो पर बोम्ब फोड़ ही दिया, की बेटा आराम से बैठ जाओ वरना चोट लग जाएगी, यह सुनना था की मम्मी को जैसे मौका मिल गया की उसका हाथ झटक कर उसको अपने पास बिठा लिया. बस इतना था की बच्ची की सारी मस्ती, हसीं, मुस्कराहट जैसे गायब हो गयी हो, इसके साथ मेरे चेहरे की भीनी सी मुस्कराहट भी कहीं छुप गयी. थोड़ी देर बाद उनका स्टेशन आया और पूरी फॅमिली उतर गयी. मैं पूरे रस्ते मैं सोचता रहा की अगर मैं उस लड़की की जगह होता तोह क्या मैं उछल उछल कर उसे पकड़ने की कोशिश नहीं करता, क्या मेरा मन नहीं करता की उन खम्बों में गोल गोल घूमूं, शायद हाँ! लेकिन अब हम बढे और समझदार हो गए हैं तोह न तोह ऐसा कर सकते हैं और हाँ, अगर कोई कर रहा हो तोह उसे यह न करने की सलाह भी दे सकते हैं.

Tuesday, March 1, 2011

दिल की आवाज़.....

हर शुक्रवार को ऑफिस जाते हुए जो चीज़ ज़हन में आती है वोह है शनिवार और इतवार की छुट्टी. लेकिन हर बार की तरह  छुट्टियाँ आती हैं और पता नहीं कैसे जल्दी से बीत जाती हैं. लेकिन जब मैं मूढ़ के देखता था तोह पता नहीं क्यों मुझे ऑफिस में बिताये मस्ती के पल ज्यादा याद आते थे, तोह मैंने निर्णय लिया की अब  मैं आने वाले वीकेन्द यानि १२-१३ फरवरी २०११ को यादगार बना कर रहूँगा. बहुत दिनों से से दिल में से आवाज रही थी की में २६ साल का हो गया लेकिन आज तक बरफ नहीं देखी, तोह क्यों ना इसी को पूरा किया जाए, तोह नेट पर गया और बहुत सी पहाड़ी जगहों का वेअदर फोरकास्ट देखा तोह पता लगा की स्नो फाल होने की उम्मीद है. तोह बस इतना देखते ही मैंने जैसे पक्का मन बना लिया बस इस शनिवार और इतवार निकल पढो कहाँ वोह पता नहीं. शिमला पहले भी घूम चूका था तोह दो चोइस थी श्रीनगर या मनाली. मैं तोह सपने भी बुनने लग गया था, ऊचें ऊचें पहाड़ बरफ से ढकी वादियाँ, खुशनुमा मौसम. और प्राकर्तिक सौंदर्य. तभी सपनो के पहाड़ों में से घर वालों की शकले मुझे घूरने लगीं, और दिमाग में आया की घरवालों की मनाना भी तोह पढ़ेगा. चाहे हम जितने भी बढे हो जाए माता पिता के लिए तोह बच्चे ही रहते हैं, तोह शाम को पूछने पर पहला जवाब तोह आप सब ने अंदाजा लगा ही लिया होगा. ना, मौसम ख़राब है, ठण्ड बहुत है, अकेले कैसे जायेगा, पहले से बुकिंग करवानी चाहिए, श्रीनगर बहुत खतरनाक इलाका है, अगली बार सब चलेंगे, अगले हफ्ते भाई कोह साथ ले जाइयो, थोड़ी ठंड कम हो जाने दो. पर मुझे तोह जाना था, मन का ग्रीन सिग्नल मिल चूका था, दिल से हाँ आ चुकी थी, और अब मैं रुक नहीं सकता था, और मैं अपने लिए एक अनप्लान्ड ट्रिप प्लान कर चूका था. इसलिए लास्ट आप्शन था उनको मनाना, और सबसे अच्छी बात परेंट्स की ये होती है की आप उन्हें भरोसा दिलाओ तोह वोह आपकी बात मान जाते हैं. तोह श्रीनगर तोह नहीं लेकिन मनाली के लिए मैंने उन्हें मना लिया, अकेले, बिना किसी बुकिंग के, और बिना किसी ख़ास तय्यारी के. तोह गुरुवार की रात को अपने छोटे से बैग में जरूरत का जो भी सामान में सोच सकता था पैक किया, और कॉलेज से सीधा मनाली बस पकड़ने के लिए सारी तय्यारी कर ली. अगले दिन कुछ खास दोस्तों को इसके बारे में बताया, तोह कुछ ने पगला समझ कर उन्सुना कर दिया, कुछ ने कहा काश में भी ऐसा कर सकता, और कुछ के अपने प्लान्स थे वरना वोह साथ चलते. तोह आखिरकार मैंने शाम को ७.३० की बस पकड़ी, और बस मनाली की और चल पढ़ी, बस में कुछ अनजाने दोस्तों से मनाली के बारे में जानकारी ईखत्ता करी, और पता लगा की बस सुबह ११.३० तक पहुंचेगी. रात इसी ख़ुशी में कब नींद आ गयी पता नहीं और सूर्य की किरणों ने मेरी ६.३० के आस पास मेरी पलकों को उठाया तोह हम पहाड़ों के बीच वादियों से गुज़र रहे थे,
 



मोबाइल के कैमरे से फोटो खीचते और नज़ारे देखते हुए ९.३० कुल्लू और ११.३० मनाली पहुंचे. बादलों से ढका हुआ, चारो तरफ पहाड़ ही पहाड़ और उनपे बरफ की चादर ऐसी की किसी बर्क लाकर चुपका दी हो, प्यारी सी ठण्ड जिसमे नाम को भी कपकपी का एहसास नहीं, के साथ मानों मनाली की माल रोड ने मेरा गले लगाकर स्वागत किया हो, और कहा आपका स्वागत है. तभी एक मेरी उम्र के एक लड़के ने मुझसे कहा की क्या आपको कमरा चाहिए, मैंने कहा हाँ, चलिए दिखाइए, कमरा तोह सिर्फ नहाने और रात के लिए चाहिए था तोह मैंने एक ठीक ठाक कमरा अपने लिए मात्र ३०० में बुक किया. एक घंटे में जल्दी से तैयार हो कर, नाश्ता करते ही तुरंत हिडिम्बा देवी के मंदिर को घूमने निकल गया, मौसम इतना प्यारा था की पैदल ही दो किलोमीटर की चढाई तय करी जो की सदियों पुराने, लम्बे और घने पेड़ों से घिरे रस्ते के बीच में से हो कर गुज़रा और पहुँच कर ऐसा लगा की मानो की सारी थकान दूर हो गयी हो, उचाई पर पहुँच कर नज़ारे और भी मनमोहक हो गए. वहां घुमने और दर्शन करने के बाद बगल में ही एक छोटा सा बच्चों का पार्क, याक, पहाड़ी खरगोश देखने के के बाद, गाँव के बीच में जहाँ नया रास्ता मिला वहां चलता गया, कहीं बच्चे क्रिकेट खेलते दिखाई दिए, कहीं बादल से ढके चोटियाँ जिनपे बर्फ बरी की वजह से धुआं उठ रहा था.



चलते चलते ३.३० के करीब बस स्टैंड पर जा पहुंचा जहाँ पर लोगों ने बताया की बर्फ देखनी हैं तोह कल सुबह सोलंग वेळी चले जाना. सोचने लगा मन तोह आज कर रहा है, कल का क्या पता आज ही चलते हैं मूड किया तोह कल सुबह फिर चल पड़ेंगे. बस ऑटो बुक किया और चल पड़ा, रस्ते में कुछ किनारों पर रुई जैसा कुछ पड़ा था पूछने पर पता लगा की वोह बर्फ है, क्यूंकि तीन दिन पहले ही स्नो फल हुआ था. मेरी तोह ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, और सोलंग वेळी में पहली बार चारो और बर्फ ही बर्फ देख कर उसमे मानों में तोह जन्नत में आ गया.






२ घंटे वहीँ पर मस्ती, स्कीइंग और एक बर्फ का पुतला बनाने के बाद निचे उतर आये. मौसम बहुत ही ठंडा और बादलों से ढका हुआ था, तोह वहां के लोगों ने बताया की रात में शायद बर्फ गिर जाये. चलो मन को थोड़ी तस्सल्ली मिली, की कल सुबह फिर यहीं पर आ कर ताज़ी बर्फ के मज़े लूटूँगा, पता लगाने के लिए वहां के स्कीइंग वाले का नंबर भी ले लिया. रात को थक के चूर हो चूका था, तोह थोडा माल रोड घुमने और रात के खाने के बाद, कमरे में जा कर सो गया. सुबह ४.३० बजे नींद खुली तोह बाहर बहुत ज़ोरों से बारिश हो रही थी, दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. ६.०० बजे के करीब उजाला हुआ तोह हलकी पढ़ी बारिश में से पहाड़ो पर पड़ी हुई बर्फ में नज़र पढ़ी जो की शायद अभी भी गिर रही थी और कुछ घरों की छत पर भी थी, तो सोच लिया की बारिश बंद होने पर उस पहाड़ी पर चढ़ के देखूंगा. सुबह ८.३० नहा कर तैयार हो गया, बारिश और हलकी हो चुकी थी तोह लगा की शायद कुछ भूल गया हूँ, फिर याद आया की ब्रुश तोह किया ही नहीं, करता कैसे लाऊंगा तभी तोह करूँगा, हाँ ब्रुश लाना भूल गया था तोह उसकी तलाश में बारिश से छुपते छुपाते मार्केट में निकल गया.




मार्केट बंद पड़ी थी लोगों ने बताया जो की ९.१५ के बाद ही खुलेगी, बारिश धीरे धीरे कम हो रही थी तोह बारिश में ही खेलने पहुँच गया, तभी सामने से एक आदमी से पूछ ही लिया "भैया स्नो फल होने के चांस हैं क्या?", जवाब मिला "होनी तोह चाहिए", मैं जैसे ही थैंक्यू बोलने वाला था, वोह चिल्लाया "मेरे ऊपर बर्फ गिरी", मैंने कहा "कौन सी बर्फ, मेरे ऊपर तोह छीटा भी नहीं गिरा" तभी ऊपर देखा तोह कुदरत का करिश्मा देखा, बारिश की बूंदों के बीच से रुई जैसे बर्फ हाथों पर और चेहरे पर आ कर कह रही हो "तुमने बुलाया और हम चले आये",




मेरी तोह ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, सबसे पहले मैंने भगवान् को थैंक्यू कहा, और ख़ुशी में झूमने लगा. फिर महसूस किया की बर्फ हांथों में आ कर पिघल रही थी, तोह एक अंकल ने कहा "ऊपर चले जाओ वहां सुखी बर्फ गिर रही होगी", बस में दौड़ पड़ा हिडिम्बा टेम्पल की और भीगते भागते कब पहुँच गया पता नहीं, लेकिन जो वहां महसूस किया वोह शब्दों में बयां नहीं कर सकता. रूई जैसी बर्फ पूरे शरीर पर आ कर ठहर रही थी, और मानों कुदरत मुझे प्यार से गले लगा रही हो. वहां खूब मस्ती के बाद सोचने लगा की क्या करू, निचे जाने की जगह मन में आया क्यों न गाँव में जाके देखा जाए, अकेला था अपनी मर्जी का मालिक तोह चल पड़ा, जहाँ मन किया वहां मूढ़ गया जहाँ रास्ता दिखा वहीँ चलता चला गया, कहीं बर्फ से ढके मंदिर, कहीं लकड़ी से बने घरों पे बर्फ कहीं बर्फ में अपने रोज़ का बुनाई का काम करती औरते, और कहीं बर्फ से छुपने की जगह ढूँढ़ते बेजुबान जानवर.






 
शायद ये सब नीचे देखने को नहीं मिलता, चलते चलते जहाँ पंहुचा वोह जन्नत से कम नहीं था, मैं एक पहाड़ी की छोटी पर था, और निचे एक बर्फ से ढकी वेल्ली, और और उसके चारो तरफ बर्फ से ढके उचे उचे पहाड़, बस और क्या दे सकती थी कुदरत, यही सोच कर हर पल कुदरत का शुक्रिया अदा करता रहा, और सोचता रहा की काश कोई तरीका होता जिससे मैं इन्हें कैद कर सकता, हाँ मोबाइल से फोटों तोह खिचता रहा, लेकिन कैमरा खूबसूरती को कैद नहीं कर सकता उसका प्रितिबिम्ब दिखा सकता है.






बस ३ घंटे के बाद धीरे चलते हुए निचे पहुंचा तोह चेक आउट कर दिया, सामान होटल वाले के पास रखवा कर, फिर चल दिया निचे के नज़ारे देखने, बर्फ़बारी अभी तक चल रही थी, तोह सडको पेड़ों और घरों पर बर्फ की मोटी परत जम चुकी थी, फिर वोही किया जहाँ मन किया वहां चल दिया. तोह एक तिब्बती मंदिर देखा, और एक बेएअस नाम की नदी बहती है वहीँ पर, उसके किनारे पहुँच गया और फिर पता लगा की नदी बर्फ़बारी में इतनी ख़ूबसूरत क्यों लगती है, चेज़ बहती नदी के बीच पढ़े पत्थर बर्फ से  ढकने के बाद मानों नदियों की शोभा में हीरे जड़ देते हों.
 

 







ऐसे ही घूमते घुमाते ३.०० बजे वापिस होटल और लंच के बाद ४.०० बजे बस में बैठ गया. बस में बैठ कर कर ठण्ड का असली एहसास शुरू हुआ, और पता चला की मैं कितना भीग चूका था, लेकिन ख़ुशी के एहसास ने सारी चीज़े भुला दी और मैं सोता हुआ साड़े ६ बजे दिल्ली आ गया. अब मैं सोचता हूँ की अगर मैं अपने दिल की आवाज़ नहीं सुनता तोह शायद न ये ट्रिप होती ना ही उसकी ख़ुशी, हाँ पछतावा ज़रूर रहता, अब मैं शायद ये ट्रिप ज़िन्दगी भर नहीं भुला सकता, और जब भी इसके बारे में सोचता हूँ तोह चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है.