हर शुक्रवार को ऑफिस जाते हुए जो चीज़ ज़हन में आती है वोह है शनिवार और इतवार की छुट्टी. लेकिन हर बार की तरह छुट्टियाँ आती हैं और पता नहीं कैसे जल्दी से बीत जाती हैं. लेकिन जब मैं मूढ़ के देखता था तोह पता नहीं क्यों मुझे ऑफिस में बिताये मस्ती के पल ज्यादा याद आते थे, तोह मैंने निर्णय लिया की अब मैं आने वाले वीकेन्द यानि १२-१३ फरवरी २०११ को यादगार बना कर रहूँगा. बहुत दिनों से से दिल में से आवाज रही थी की में २६ साल का हो गया लेकिन आज तक बरफ नहीं देखी, तोह क्यों ना इसी को पूरा किया जाए, तोह नेट पर गया और बहुत सी पहाड़ी जगहों का वेअदर फोरकास्ट देखा तोह पता लगा की स्नो फाल होने की उम्मीद है. तोह बस इतना देखते ही मैंने जैसे पक्का मन बना लिया बस इस शनिवार और इतवार निकल पढो कहाँ वोह पता नहीं. शिमला पहले भी घूम चूका था तोह दो चोइस थी श्रीनगर या मनाली. मैं तोह सपने भी बुनने लग गया था, ऊचें ऊचें पहाड़ बरफ से ढकी वादियाँ, खुशनुमा मौसम. और प्राकर्तिक सौंदर्य. तभी सपनो के पहाड़ों में से घर वालों की शकले मुझे घूरने लगीं, और दिमाग में आया की घरवालों की मनाना भी तोह पढ़ेगा. चाहे हम जितने भी बढे हो जाए माता पिता के लिए तोह बच्चे ही रहते हैं, तोह शाम को पूछने पर पहला जवाब तोह आप सब ने अंदाजा लगा ही लिया होगा. ना, मौसम ख़राब है, ठण्ड बहुत है, अकेले कैसे जायेगा, पहले से बुकिंग करवानी चाहिए, श्रीनगर बहुत खतरनाक इलाका है, अगली बार सब चलेंगे, अगले हफ्ते भाई कोह साथ ले जाइयो, थोड़ी ठंड कम हो जाने दो. पर मुझे तोह जाना था, मन का ग्रीन सिग्नल मिल चूका था, दिल से हाँ आ चुकी थी, और अब मैं रुक नहीं सकता था, और मैं अपने लिए एक अनप्लान्ड ट्रिप प्लान कर चूका था. इसलिए लास्ट आप्शन था उनको मनाना, और सबसे अच्छी बात परेंट्स की ये होती है की आप उन्हें भरोसा दिलाओ तोह वोह आपकी बात मान जाते हैं. तोह श्रीनगर तोह नहीं लेकिन मनाली के लिए मैंने उन्हें मना लिया, अकेले, बिना किसी बुकिंग के, और बिना किसी ख़ास तय्यारी के. तोह गुरुवार की रात को अपने छोटे से बैग में जरूरत का जो भी सामान में सोच सकता था पैक किया, और कॉलेज से सीधा मनाली बस पकड़ने के लिए सारी तय्यारी कर ली. अगले दिन कुछ खास दोस्तों को इसके बारे में बताया, तोह कुछ ने पगला समझ कर उन्सुना कर दिया, कुछ ने कहा काश में भी ऐसा कर सकता, और कुछ के अपने प्लान्स थे वरना वोह साथ चलते. तोह आखिरकार मैंने शाम को ७.३० की बस पकड़ी, और बस मनाली की और चल पढ़ी, बस में कुछ अनजाने दोस्तों से मनाली के बारे में जानकारी ईखत्ता करी, और पता लगा की बस सुबह ११.३० तक पहुंचेगी. रात इसी ख़ुशी में कब नींद आ गयी पता नहीं और सूर्य की किरणों ने मेरी ६.३० के आस पास मेरी पलकों को उठाया तोह हम पहाड़ों के बीच वादियों से गुज़र रहे थे,
मोबाइल के कैमरे से फोटो खीचते और नज़ारे देखते हुए ९.३० कुल्लू और ११.३० मनाली पहुंचे. बादलों से ढका हुआ, चारो तरफ पहाड़ ही पहाड़ और उनपे बरफ की चादर ऐसी की किसी बर्क लाकर चुपका दी हो, प्यारी सी ठण्ड जिसमे नाम को भी कपकपी का एहसास नहीं, के साथ मानों मनाली की माल रोड ने मेरा गले लगाकर स्वागत किया हो, और कहा आपका स्वागत है. तभी एक मेरी उम्र के एक लड़के ने मुझसे कहा की क्या आपको कमरा चाहिए, मैंने कहा हाँ, चलिए दिखाइए, कमरा तोह सिर्फ नहाने और रात के लिए चाहिए था तोह मैंने एक ठीक ठाक कमरा अपने लिए मात्र ३०० में बुक किया. एक घंटे में जल्दी से तैयार हो कर, नाश्ता करते ही तुरंत हिडिम्बा देवी के मंदिर को घूमने निकल गया, मौसम इतना प्यारा था की पैदल ही दो किलोमीटर की चढाई तय करी जो की सदियों पुराने, लम्बे और घने पेड़ों से घिरे रस्ते के बीच में से हो कर गुज़रा और पहुँच कर ऐसा लगा की मानो की सारी थकान दूर हो गयी हो, उचाई पर पहुँच कर नज़ारे और भी मनमोहक हो गए. वहां घुमने और दर्शन करने के बाद बगल में ही एक छोटा सा बच्चों का पार्क, याक, पहाड़ी खरगोश देखने के के बाद, गाँव के बीच में जहाँ नया रास्ता मिला वहां चलता गया, कहीं बच्चे क्रिकेट खेलते दिखाई दिए, कहीं बादल से ढके चोटियाँ जिनपे बर्फ बरी की वजह से धुआं उठ रहा था.
चलते चलते ३.३० के करीब बस स्टैंड पर जा पहुंचा जहाँ पर लोगों ने बताया की बर्फ देखनी हैं तोह कल सुबह सोलंग वेळी चले जाना. सोचने लगा मन तोह आज कर रहा है, कल का क्या पता आज ही चलते हैं मूड किया तोह कल सुबह फिर चल पड़ेंगे. बस ऑटो बुक किया और चल पड़ा, रस्ते में कुछ किनारों पर रुई जैसा कुछ पड़ा था पूछने पर पता लगा की वोह बर्फ है, क्यूंकि तीन दिन पहले ही स्नो फल हुआ था. मेरी तोह ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, और सोलंग वेळी में पहली बार चारो और बर्फ ही बर्फ देख कर उसमे मानों में तोह जन्नत में आ गया.
२ घंटे वहीँ पर मस्ती, स्कीइंग और एक बर्फ का पुतला बनाने के बाद निचे उतर आये. मौसम बहुत ही ठंडा और बादलों से ढका हुआ था, तोह वहां के लोगों ने बताया की रात में शायद बर्फ गिर जाये. चलो मन को थोड़ी तस्सल्ली मिली, की कल सुबह फिर यहीं पर आ कर ताज़ी बर्फ के मज़े लूटूँगा, पता लगाने के लिए वहां के स्कीइंग वाले का नंबर भी ले लिया. रात को थक के चूर हो चूका था, तोह थोडा माल रोड घुमने और रात के खाने के बाद, कमरे में जा कर सो गया. सुबह ४.३० बजे नींद खुली तोह बाहर बहुत ज़ोरों से बारिश हो रही थी, दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. ६.०० बजे के करीब उजाला हुआ तोह हलकी पढ़ी बारिश में से पहाड़ो पर पड़ी हुई बर्फ में नज़र पढ़ी जो की शायद अभी भी गिर रही थी और कुछ घरों की छत पर भी थी, तो सोच लिया की बारिश बंद होने पर उस पहाड़ी पर चढ़ के देखूंगा. सुबह ८.३० नहा कर तैयार हो गया, बारिश और हलकी हो चुकी थी तोह लगा की शायद कुछ भूल गया हूँ, फिर याद आया की ब्रुश तोह किया ही नहीं, करता कैसे लाऊंगा तभी तोह करूँगा, हाँ ब्रुश लाना भूल गया था तोह उसकी तलाश में बारिश से छुपते छुपाते मार्केट में निकल गया.
मार्केट बंद पड़ी थी लोगों ने बताया जो की ९.१५ के बाद ही खुलेगी, बारिश धीरे धीरे कम हो रही थी तोह बारिश में ही खेलने पहुँच गया, तभी सामने से एक आदमी से पूछ ही लिया "भैया स्नो फल होने के चांस हैं क्या?", जवाब मिला "होनी तोह चाहिए", मैं जैसे ही थैंक्यू बोलने वाला था, वोह चिल्लाया "मेरे ऊपर बर्फ गिरी", मैंने कहा "कौन सी बर्फ, मेरे ऊपर तोह छीटा भी नहीं गिरा" तभी ऊपर देखा तोह कुदरत का करिश्मा देखा, बारिश की बूंदों के बीच से रुई जैसे बर्फ हाथों पर और चेहरे पर आ कर कह रही हो "तुमने बुलाया और हम चले आये",
मेरी तोह ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, सबसे पहले मैंने भगवान् को थैंक्यू कहा, और ख़ुशी में झूमने लगा. फिर महसूस किया की बर्फ हांथों में आ कर पिघल रही थी, तोह एक अंकल ने कहा "ऊपर चले जाओ वहां सुखी बर्फ गिर रही होगी", बस में दौड़ पड़ा हिडिम्बा टेम्पल की और भीगते भागते कब पहुँच गया पता नहीं, लेकिन जो वहां महसूस किया वोह शब्दों में बयां नहीं कर सकता. रूई जैसी बर्फ पूरे शरीर पर आ कर ठहर रही थी, और मानों कुदरत मुझे प्यार से गले लगा रही हो. वहां खूब मस्ती के बाद सोचने लगा की क्या करू, निचे जाने की जगह मन में आया क्यों न गाँव में जाके देखा जाए, अकेला था अपनी मर्जी का मालिक तोह चल पड़ा, जहाँ मन किया वहां मूढ़ गया जहाँ रास्ता दिखा वहीँ चलता चला गया, कहीं बर्फ से ढके मंदिर, कहीं लकड़ी से बने घरों पे बर्फ कहीं बर्फ में अपने रोज़ का बुनाई का काम करती औरते, और कहीं बर्फ से छुपने की जगह ढूँढ़ते बेजुबान जानवर.
शायद ये सब नीचे देखने को नहीं मिलता, चलते चलते जहाँ पंहुचा वोह जन्नत से कम नहीं था, मैं एक पहाड़ी की छोटी पर था, और निचे एक बर्फ से ढकी वेल्ली, और और उसके चारो तरफ बर्फ से ढके उचे उचे पहाड़, बस और क्या दे सकती थी कुदरत, यही सोच कर हर पल कुदरत का शुक्रिया अदा करता रहा, और सोचता रहा की काश कोई तरीका होता जिससे मैं इन्हें कैद कर सकता, हाँ मोबाइल से फोटों तोह खिचता रहा, लेकिन कैमरा खूबसूरती को कैद नहीं कर सकता उसका प्रितिबिम्ब दिखा सकता है.
ऐसे ही घूमते घुमाते ३.०० बजे वापिस होटल और लंच के बाद ४.०० बजे बस में बैठ गया. बस में बैठ कर कर ठण्ड का असली एहसास शुरू हुआ, और पता चला की मैं कितना भीग चूका था, लेकिन ख़ुशी के एहसास ने सारी चीज़े भुला दी और मैं सोता हुआ साड़े ६ बजे दिल्ली आ गया. अब मैं सोचता हूँ की अगर मैं अपने दिल की आवाज़ नहीं सुनता तोह शायद न ये ट्रिप होती ना ही उसकी ख़ुशी, हाँ पछतावा ज़रूर रहता, अब मैं शायद ये ट्रिप ज़िन्दगी भर नहीं भुला सकता, और जब भी इसके बारे में सोचता हूँ तोह चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है.
मोबाइल के कैमरे से फोटो खीचते और नज़ारे देखते हुए ९.३० कुल्लू और ११.३० मनाली पहुंचे. बादलों से ढका हुआ, चारो तरफ पहाड़ ही पहाड़ और उनपे बरफ की चादर ऐसी की किसी बर्क लाकर चुपका दी हो, प्यारी सी ठण्ड जिसमे नाम को भी कपकपी का एहसास नहीं, के साथ मानों मनाली की माल रोड ने मेरा गले लगाकर स्वागत किया हो, और कहा आपका स्वागत है. तभी एक मेरी उम्र के एक लड़के ने मुझसे कहा की क्या आपको कमरा चाहिए, मैंने कहा हाँ, चलिए दिखाइए, कमरा तोह सिर्फ नहाने और रात के लिए चाहिए था तोह मैंने एक ठीक ठाक कमरा अपने लिए मात्र ३०० में बुक किया. एक घंटे में जल्दी से तैयार हो कर, नाश्ता करते ही तुरंत हिडिम्बा देवी के मंदिर को घूमने निकल गया, मौसम इतना प्यारा था की पैदल ही दो किलोमीटर की चढाई तय करी जो की सदियों पुराने, लम्बे और घने पेड़ों से घिरे रस्ते के बीच में से हो कर गुज़रा और पहुँच कर ऐसा लगा की मानो की सारी थकान दूर हो गयी हो, उचाई पर पहुँच कर नज़ारे और भी मनमोहक हो गए. वहां घुमने और दर्शन करने के बाद बगल में ही एक छोटा सा बच्चों का पार्क, याक, पहाड़ी खरगोश देखने के के बाद, गाँव के बीच में जहाँ नया रास्ता मिला वहां चलता गया, कहीं बच्चे क्रिकेट खेलते दिखाई दिए, कहीं बादल से ढके चोटियाँ जिनपे बर्फ बरी की वजह से धुआं उठ रहा था.
चलते चलते ३.३० के करीब बस स्टैंड पर जा पहुंचा जहाँ पर लोगों ने बताया की बर्फ देखनी हैं तोह कल सुबह सोलंग वेळी चले जाना. सोचने लगा मन तोह आज कर रहा है, कल का क्या पता आज ही चलते हैं मूड किया तोह कल सुबह फिर चल पड़ेंगे. बस ऑटो बुक किया और चल पड़ा, रस्ते में कुछ किनारों पर रुई जैसा कुछ पड़ा था पूछने पर पता लगा की वोह बर्फ है, क्यूंकि तीन दिन पहले ही स्नो फल हुआ था. मेरी तोह ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, और सोलंग वेळी में पहली बार चारो और बर्फ ही बर्फ देख कर उसमे मानों में तोह जन्नत में आ गया.
२ घंटे वहीँ पर मस्ती, स्कीइंग और एक बर्फ का पुतला बनाने के बाद निचे उतर आये. मौसम बहुत ही ठंडा और बादलों से ढका हुआ था, तोह वहां के लोगों ने बताया की रात में शायद बर्फ गिर जाये. चलो मन को थोड़ी तस्सल्ली मिली, की कल सुबह फिर यहीं पर आ कर ताज़ी बर्फ के मज़े लूटूँगा, पता लगाने के लिए वहां के स्कीइंग वाले का नंबर भी ले लिया. रात को थक के चूर हो चूका था, तोह थोडा माल रोड घुमने और रात के खाने के बाद, कमरे में जा कर सो गया. सुबह ४.३० बजे नींद खुली तोह बाहर बहुत ज़ोरों से बारिश हो रही थी, दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. ६.०० बजे के करीब उजाला हुआ तोह हलकी पढ़ी बारिश में से पहाड़ो पर पड़ी हुई बर्फ में नज़र पढ़ी जो की शायद अभी भी गिर रही थी और कुछ घरों की छत पर भी थी, तो सोच लिया की बारिश बंद होने पर उस पहाड़ी पर चढ़ के देखूंगा. सुबह ८.३० नहा कर तैयार हो गया, बारिश और हलकी हो चुकी थी तोह लगा की शायद कुछ भूल गया हूँ, फिर याद आया की ब्रुश तोह किया ही नहीं, करता कैसे लाऊंगा तभी तोह करूँगा, हाँ ब्रुश लाना भूल गया था तोह उसकी तलाश में बारिश से छुपते छुपाते मार्केट में निकल गया.
मार्केट बंद पड़ी थी लोगों ने बताया जो की ९.१५ के बाद ही खुलेगी, बारिश धीरे धीरे कम हो रही थी तोह बारिश में ही खेलने पहुँच गया, तभी सामने से एक आदमी से पूछ ही लिया "भैया स्नो फल होने के चांस हैं क्या?", जवाब मिला "होनी तोह चाहिए", मैं जैसे ही थैंक्यू बोलने वाला था, वोह चिल्लाया "मेरे ऊपर बर्फ गिरी", मैंने कहा "कौन सी बर्फ, मेरे ऊपर तोह छीटा भी नहीं गिरा" तभी ऊपर देखा तोह कुदरत का करिश्मा देखा, बारिश की बूंदों के बीच से रुई जैसे बर्फ हाथों पर और चेहरे पर आ कर कह रही हो "तुमने बुलाया और हम चले आये",
मेरी तोह ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, सबसे पहले मैंने भगवान् को थैंक्यू कहा, और ख़ुशी में झूमने लगा. फिर महसूस किया की बर्फ हांथों में आ कर पिघल रही थी, तोह एक अंकल ने कहा "ऊपर चले जाओ वहां सुखी बर्फ गिर रही होगी", बस में दौड़ पड़ा हिडिम्बा टेम्पल की और भीगते भागते कब पहुँच गया पता नहीं, लेकिन जो वहां महसूस किया वोह शब्दों में बयां नहीं कर सकता. रूई जैसी बर्फ पूरे शरीर पर आ कर ठहर रही थी, और मानों कुदरत मुझे प्यार से गले लगा रही हो. वहां खूब मस्ती के बाद सोचने लगा की क्या करू, निचे जाने की जगह मन में आया क्यों न गाँव में जाके देखा जाए, अकेला था अपनी मर्जी का मालिक तोह चल पड़ा, जहाँ मन किया वहां मूढ़ गया जहाँ रास्ता दिखा वहीँ चलता चला गया, कहीं बर्फ से ढके मंदिर, कहीं लकड़ी से बने घरों पे बर्फ कहीं बर्फ में अपने रोज़ का बुनाई का काम करती औरते, और कहीं बर्फ से छुपने की जगह ढूँढ़ते बेजुबान जानवर.
शायद ये सब नीचे देखने को नहीं मिलता, चलते चलते जहाँ पंहुचा वोह जन्नत से कम नहीं था, मैं एक पहाड़ी की छोटी पर था, और निचे एक बर्फ से ढकी वेल्ली, और और उसके चारो तरफ बर्फ से ढके उचे उचे पहाड़, बस और क्या दे सकती थी कुदरत, यही सोच कर हर पल कुदरत का शुक्रिया अदा करता रहा, और सोचता रहा की काश कोई तरीका होता जिससे मैं इन्हें कैद कर सकता, हाँ मोबाइल से फोटों तोह खिचता रहा, लेकिन कैमरा खूबसूरती को कैद नहीं कर सकता उसका प्रितिबिम्ब दिखा सकता है.
बस ३ घंटे के बाद धीरे चलते हुए निचे पहुंचा तोह चेक आउट कर दिया, सामान होटल वाले के पास रखवा कर, फिर चल दिया निचे के नज़ारे देखने, बर्फ़बारी अभी तक चल रही थी, तोह सडको पेड़ों और घरों पर बर्फ की मोटी परत जम चुकी थी, फिर वोही किया जहाँ मन किया वहां चल दिया. तोह एक तिब्बती मंदिर देखा, और एक बेएअस नाम की नदी बहती है वहीँ पर, उसके किनारे पहुँच गया और फिर पता लगा की नदी बर्फ़बारी में इतनी ख़ूबसूरत क्यों लगती है, चेज़ बहती नदी के बीच पढ़े पत्थर बर्फ से ढकने के बाद मानों नदियों की शोभा में हीरे जड़ देते हों.
ऐसे ही घूमते घुमाते ३.०० बजे वापिस होटल और लंच के बाद ४.०० बजे बस में बैठ गया. बस में बैठ कर कर ठण्ड का असली एहसास शुरू हुआ, और पता चला की मैं कितना भीग चूका था, लेकिन ख़ुशी के एहसास ने सारी चीज़े भुला दी और मैं सोता हुआ साड़े ६ बजे दिल्ली आ गया. अब मैं सोचता हूँ की अगर मैं अपने दिल की आवाज़ नहीं सुनता तोह शायद न ये ट्रिप होती ना ही उसकी ख़ुशी, हाँ पछतावा ज़रूर रहता, अब मैं शायद ये ट्रिप ज़िन्दगी भर नहीं भुला सकता, और जब भी इसके बारे में सोचता हूँ तोह चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है.
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