Wednesday, April 6, 2011

हमको शर्म कुछ ज्यादा ही आती है!!!!

रोज की तरह आज शाम की मेट्रो से पकड़ी जो की नॉएडा की तरफ जानी थी तोह द्वारका स्टेशन पर उतर कर आनंद विहार की मेट्रो का वेट कर रहा था की पास में एक छोटी बच्ची पर नज़र पड़ी. उसकी उम्र शायद १०-११ साल की रही होगी तोह उसकी मासूमियत भरे चेहरे पे हलकी सी मुस्कान ने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित किया. उसके साथ उसके माता पिता के साथ उसका ७-८ साल छोटा भाई भी था. भाई तोह थोडा शांत स्वाभाव का था, वोह ही थोड़ी नटखट और चुलबुली सी लग रही थी. अपनी ही धुन में मस्त कभी इस उधर दौड़ लगाती कभी उस और, कभी भाई को छेड़ कर बोर्ड के पीछे छुप जाती. कभी पापा से पूछती की "हमें कौन से स्टेशन तक जाना है" "कितना टाइम लगेगा", तभी पता नहीं माता जी को क्या सूझा उसका हाथ खीच कर बोली "चल चुप चाप बैठ जा यहाँ पर". बस इतना कहना था की मेट्रो आ गयी, और हम सब मेट्रो में बैठ गए, मैं पता नहीं क्या सोचता हुआ जान बूझ कर उन बच्चों की सीट के आस पास वाली सीट पर बैठ गया. मेट्रो ने दो स्टेशन ही आगे गयी थी की उसको फिर कुछ मस्ती सूझी की अपनी सीट से उठी और मेट्रो के बीच में लगे खम्बों को पकड़ कर गोल गोल चक्कर लगाने लगी, एक दो मिनट के बाद उसके मन आया तोह एक खम्बे से दुसरे से तीसरे के बीच इधर उधर घुमने लगी. भाई को बुलाने की कोशिश करी तोह मम्मी ने ऐसी नज़रों से देखा की फिर उसकी कुछ और कहने की हिम्मत नहीं हुई. उसके पापा की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया क्यूंकि मैं तोह उसके नटखट बचपन मैं खो गया था. गोल गोल घूम कर बोर हो गयी तोह उसका ध्यान ऊपर लटके हुए पकडे जाने वाले छल्लों पर गया तोह समझो उसकी बरसों पुरानी तम्मन्ना पूरी हो गयी हो, वोह तोह लगी उछल उछल कर उन्हें पकड़ने की कोशिश में, लेकिन वोह थोड़ी सी रह जाती फिर उछलती फिर जरा सा रह जाती, मैं उम्मीद में लगा हुआ की अब पकडे अब पकडे अब पकडे, लेकिन उसका कद उसको ये इजाजत नहीं दे रहा था. मन तोह किया की उठ कर उसकी मदद कर दूं और आज उसकी लटकने की इच्छा पूरी कर दूं लेकिन जैसा मैंने ऊपर लिखा है की हम लोगों को शर्म कुछ ज्यादा ही आती है. डर भी लग रहा था की कहीं उसके माता पिता ने कुछ बोल दिया तोह, और ये भी सोच रहा था की वोह ही उठ कर उसकी ये इच्छा पूर्ती कर देंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं शायद उनको मुझसे ज्यादा शर्म आ रही थी, और इन सब के बीच उसकी कोशिश जारी थी, तभी दूर बैठी एक आंटी ने उस बच्ची के अरमानो पर बोम्ब फोड़ ही दिया, की बेटा आराम से बैठ जाओ वरना चोट लग जाएगी, यह सुनना था की मम्मी को जैसे मौका मिल गया की उसका हाथ झटक कर उसको अपने पास बिठा लिया. बस इतना था की बच्ची की सारी मस्ती, हसीं, मुस्कराहट जैसे गायब हो गयी हो, इसके साथ मेरे चेहरे की भीनी सी मुस्कराहट भी कहीं छुप गयी. थोड़ी देर बाद उनका स्टेशन आया और पूरी फॅमिली उतर गयी. मैं पूरे रस्ते मैं सोचता रहा की अगर मैं उस लड़की की जगह होता तोह क्या मैं उछल उछल कर उसे पकड़ने की कोशिश नहीं करता, क्या मेरा मन नहीं करता की उन खम्बों में गोल गोल घूमूं, शायद हाँ! लेकिन अब हम बढे और समझदार हो गए हैं तोह न तोह ऐसा कर सकते हैं और हाँ, अगर कोई कर रहा हो तोह उसे यह न करने की सलाह भी दे सकते हैं.

1 comment:

  1. plz dont try these things only in metro...:P....jahan mann kare wahan masti kr leni chahiye...:)

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