Wednesday, February 2, 2011

खुशियों की चाबी..

मैं कल मेट्रो में जा रहा था, वैसे तो ये रोज की बात है, लेकिन कल कुछ खास हुआ जो मै चाहता हूँ कि आप सब से बांटूं। तोह रोज कि तरह मैंने शाम की साडे पांच कि मेट्रो मे बैठा, जो कि द्वारका सेक्टर २१ से अनद विहार को जानी थी। खाली मेट्रो होती है तोह जगह नहीं ढूँढनी पढ़ती, तोह जहाँ आज मन करा वहां बैठ गया। अब जहाँ का मतलब महिलाओं वाला मत समझ लीजिएगा, बस मेट्रो के दरवाजे बंद होने कि आवाज़ हुई तोह हमें अपनी यात्रा शुरू करने का संकेत मिल गया। मेरी यात्रा सेक्टर २१ से प्रीत विहार तक कि होती है, तोह समय व्यतीत करने के लिए अपने मोबाइल मे रखे कुछ गानों का सहारा ले लेता हूँ। हालाँकि उसमे २०० से ज्यादा गाने हैं लेकीन मैंने २० गाने ही २०० बार से ज्यादा बार सुने हैं । अधिकतर लोग मेट्रो मे हेद्फोंन लगाकर सो जाते हैं, लेकिन मुझसे ये जुल्म नहीं हो पाता। इसलिए मन ही मन बोल दोहराता रहता हूँ तो लगता हैं कि महफ़िल सजी हुई है। मेट्रो में बहुत लोग सामने वाली सीटों पर बैठे एक दुसरे की तरफ देख लेते हैं लेकिन कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देते और कभी कोई सामने से देख कर मुस्कुरा देता है तोह मैं भी उसी अंदाज़ मैं जवाब भी दे दिया करता हूँ। लेकिन एक बात कि ख़ुशी है कि जैसे दिन नया होता है तोह उसी तरह हर दिन नए लोग भी मिलते हैं और उनके संग जुड़े किस्से भी।  तोह ऐसे ही गाने सुनते और गुनगुनाते हुए सेक्टर ९ पर पहुंचे तोह लोगों की भीड़ धडधडाती हुई अन्दर आई और अपनी सीटों की तरफ दौड़ी, हालाँकि सीटें तोह अधिकतर खाली थी लेकिन सबको कोने वाली सीट से कुछ ज्यादा ही लगाव होता है। तोह अब मेरे साथ बहुत से अनजान  लोगों की भीड़ भी थी। चलो मेट्रो आगे बढती रही और हर स्टेशन पर लोगों का उतरना और चढ़ना भी चलता रहा और उसके साथ मेट्रो के स्पीकर में से घोषणाओं का सिलसिला भी चलता रहा। जैसे ही जनक पूरी पूर्व की घोषणा हुई तोह अचानक मेरा ध्यान सामने वाली  सीट पर आये नए मेहमानों पर गया, बगल में शोप्पेर्स स्टॉप के भारी भारी दो बैग थे, और दोनों देखने पर माँ बेटी का एक प्यारा सा जोड़ा लग रहा था। लड़की शायद १४ १५ साल की थी और उनकी माताश्री ४० वर्ष के आस पास की। दोनों साथ में गप्पे लगा रही थी, मैं उनकी बातें तोह नहीं सुन पाया लेकिन बात करने के तरीके ने मुझे अपना हेअद्फोने निकालने पर मजबूर कर दिया। लड़की थी किसी बात पर बहुत नाराज़ थी, शायद उसके मतलब की कोई चीज़ दिलवाई नहीं गयी या मिली नहीं ठीक से समझ में नहीं आ रहा था। तभी लड़की चिल्ला कर बोली, "मुझे वोही वाली सैनदिल चाहिए थी मगर आप मेरी सुनते ही कहाँ हो"। लोगों के घूरती निगाहों से शर्मा कर लड़की कुछ शांत तोह हो गयी, लेकिन फुसफुसाहट चलती रही। मैंने भी हेअद्फोने वपिस लगाये और फिर से अपने गानों में लग गया। लड़की की नाराज़गी दूर तोह नहीं हो पाई, लेकिन उनका स्टेशन आ गया और दोनों अपनी दिशा में चल दिए। कुछ देर के बाद राजीव चौक स्टेशन जैसे ही पहुंची, वहां जितने लोग उतरे उससे ज्यादा चढ़ गए। तोह खचा खच भरी मेट्रो में सब खड़े हुए लोग बैठे हुए लोगों को ऐसे घूर रहे थे मानों उनसे बहुत बड़ी गलती हो गयी हो। ये भीड़ अधिकतर लक्ष्मी नगर और निर्माण विहार के लिए ही होती है। तभी मेरी नज़र भीड़ में दरवाज़े के कोने में खड़े एक ८ या ९ साल के बच्चे पर पड़ी, "मुस्कुरा रहा था" ना तोह ढंग के कपडे पहने थे, ना ही बैठा हुआ था, ना ही हाथ में शौपिंग बैग थे। मैं दूर बैठा था, और उसके पास जाने की जगह भी नहीं थी तोह मैं उसी को देखता रहा और धीमी सी मुस्कराहट मेरे चेहरे पर भी आती रही, जैसे ही लक्ष्मी नगर पर मेट्रो खाली हुई तोह मैं सीट से उठ कर उसके करीब गया, और पूछा की आप मुस्कुरा रहे हो क्या कोई रिजल्ट आ गया क्या, बच्चे से और क्या पूछता तोह ये ही पूछ लिया। छोटा बच्चा था तोह बोल भी लिया वरना शायद दस बातें सुनाता, जैसे की आपको क्या मतलब वगेरा वगेरा। बोला "ऐसे ही मन किया तोह मुस्कुरा लिया", और इतना कह के निर्माण विहार पर मुस्कुराते हुए उतर गया। मुझे नहीं पता की उसने सही बताया या फिर मुझे टालने के लिए ऐसा कह दिया, लेकिन मैं घर तक जाते जाते सोचता रहा, की हमें हर चीज़ के लिए वजह क्यों चाहिए, घूमने के लिए वजह, बात के लिए वजह, यहाँ तक की मुस्कुराने और खुश रहने के लिए भी वजह। जबकि सच ये है की हम जब चाहें तब खुश रह सकते हैं, उसके लिए शौपिंग बैग या अच्छे मोबाइल या सीट की जरूरत नहीं है, जरुरत है तोह सिर्फ ख़ुशी महसूस करने की............